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________________ . निजात्मा के परमात्म-स्वरूप को प्रकट करने की जो उत्तम सामग्री हमे प्राप्त हुई है उसका उस दिशा मे ही सदुपयोग करके हम निस्सन्देह सर्वोपयोगी, सर्वोपकारी, शुद्ध जीवन के चरम शिखर पर पहुँच सकेंगे। शुद्धात्म स्वरूप प्रकट करने को शीघ्रता जब-जब प्रभो। मैं आपके शुद्धात्म द्रव्य का विचार करता हूँ, तवतव मुझे अपने ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म से आच्छादित अशुद्ध आत्म द्रव्य मे भी प्रच्छन्न रूप मे निहित शुद्धात्म-स्वरूप के दर्शन होते हैं और उसे प्रकट करने की तीव्र अभिलापा होती है। __इस प्रकार मेरे शुद्ध आत्म-द्रव्य का ज्ञान करा कर मेरे मिथ्यात्व-तहो का उच्छेद कराने में भी प्रभो ! आपके शुद्धात्म द्रव्य का चिन्तन भी अनन्य सहायक होता है, उपकारी होता है । प्रभो ! जब-जब समवसरण मे बैठ कर आप देशना देते हैं, उस दृश्य को अपने नेत्रो के समक्ष लाता हूँ, तब-तब तो मुझे यही होता है कि मैं भी इस बारह पर्षदारो के मध्य बैठ कर आपकी अमृत-वृष्टि करती वाणी का पान कर रहा हूँ। पाप ही मुझे इस ससार की दु ख-रूपता, दुख-फलकता और दु खानुबधकता का वास्तविक भान करा रहे हैं और मोक्ष-प्राप्ति के उपायो का यथार्थ ज्ञान करा रहे हैं ऐसा आभास होता है। हे नाथ ! शरद-पूर्णिमा के चन्द्र की ज्योत्स्ना को लज्जित करने वाली अनुपम कान्ति-युक्त आपके मुख-चन्द्र का दर्शन स्मृति-पथ मे आते ही हृदय हर्प-विभोर हो जाता है और देवताओ द्वारा रचित समवसरण की अलौकिक रचना, अष्ट महाप्रातिहार्यों की अद्भुत शोभा, चौतीस अतिशयो की समृद्धि और पैतीस गुणो से युक्त देशना ग्रादि सब मुझे आपके प्रकृष्ट पुण्य की झलक प्रस्तुत करते हैं, आपकी 'सवि जीव कर शासन रसी' की उत्कृष्ट भावदया का स्मरण कराते है। देवेन्द्रो, असुरेन्द्रो एव नरेन्द्रो द्वारा पूज्य हे प्रभो । अाज आपके समान नाथ को प्राप्त करके मैं कृतार्थ हो गया हूँ। निर्बल व्यक्ति भी बलवान ४८ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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