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________________ से लकडी के पालम्बन को समर्पित हो जाता है, उसी भाव से मैं आपके नाम . रूपी आलम्बन को समर्पित होकर आपके दर्शन की अपनी प्यास बुझाऊँगा। __ और प्रभो ! आपके सदश अापकी पावन पडिमा (प्रतिमाका मैं जबजब आलम्बन लेता हूँ, तब-तब तो मानो मुझे साक्षात् श्राप ही मिले हो ऐसा अपूर्व आनन्द होता है, हृदय हर्प-विभोर होकर नेत्र अपलक बन अनन्य उत्साह एव उमग से आपके दर्शनामृत का पान करने लगते है । मन 'मेरा' मिट कर 'आपका' हो जाता है। हे नाथ ! आपकी पावन प्रतिमा भी मेरे लिये अनन्य आधार है, भीषण भव-सागर मे डूबते हुए को बचाने वाले सुन्दर, सुदृढ जहाज तुल्य है। क्त-हृदय की यह व्यथा उस भक्तिमय जीवन की प्रेरक कथा है । भगवान को उपालम्भ देने का अधिकार सच्चे भक्त को ही होता है क्योकि उस उपालम्भ के मूल मे कोई सासारिक लालसा नही होती, परन्तु वीतराग के परम विशुद्ध स्वरूप का श्रेष्ठ सम्मान होता है । निष्काम भक्ति की चुम्बकीय (प्राकर्पण) शक्ति को त्रिलोक मे कोई कदापि चुनौती नहीं दे सकता, क्योकि वह त्रिभुवन-पति श्री अरिहन्त परमात्मा से सम्बन्धित होती है । अत उसमे अरिहन्त परमात्मा का अचिन्त्य सामर्थ्य होता है। श्री वीतराग, अरिहन्त परमात्मा का राग चाहे एक-पक्षीय है परन्तु वह अवश्य करने जैसा है, अपनाने जैसा है, नियमा उपयोगी है, क्योकि उस राग मे भक्त को वीतराग बनाने का स्वाभाविक सामर्थ्य है । भक्त-हृदय की व्यथा व्यक्त करने वाले वचनो मे इस प्रकार का मर्म सुरभित होता है । चेतन पर जड के स्वामित्व को नष्ट करने मे श्री अरिहन्त परमात्मा की चारो निक्षेपा की भक्ति समान सामर्थ्य रखती है। अतः सचेत भक्तो को सत्वर, जागृत होकर जड-राग के आक्रमणो को विफल करने के लिये श्री अरिहन्त परमात्मा को, उनके नाम को, उनके आदेश को, उनकी उत्कृष्ट भावना को सम्मुख रख कर चलना चाहिये। मिले मन भीतर भगवान ४७
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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