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________________ .अत आत्म-तत्त्व में श्रद्धा एवं उसका दर्शन ही सम्यग् दर्शन है, यात्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है और उस स्वरूप मे रमण करना ही सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार इसे निश्चय रत्नत्रयी कहते हैं। तो सोचना यह है कि यह आत्मा कैसी महिमामयी है, अचिन्त्य शक्ति-सम्पन्न है। आत्मा ही परम आराध्य है । इस त्रिकालावाध्य सत्य की उद्घोषणा करने वाले अन्य कोई नही हैं, परन्तु श्री अरिहन्त परमात्मा ही हैं । यह तथ्य जानने के पश्चात् हमारे रोम-रोम मे आत्मा की आराधना करने की भावना के भानु का प्रकाश व्याप्त हो जाना चाहिये, प्रसारित हो जाना चाहिये । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज योग-शास्त्र के चतुर्थ प्रकाश मे फरमाते हैं आत्मानमात्मना वेत्ति मोहव्यागाद्य प्रात्मनि । तदेव तस्य चारित्र, तज्ज्ञान तच्च दर्शनम् ॥ अर्थ -जो व्यक्ति मोह त्याग कर आत्मा के द्वारा आत्मा को प्रात्मा मे जानता है, वही उसका चारित्र है, वही ज्ञान है और वही दर्शन है । तात्पर्य यह है कि प्रात्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा मे देखना ही तत्त्व दृष्टि है । आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा मे जानना तत्त्व-बोध है और आत्मा मे आत्मा के रूप मे जीना तत्त्व-जीवन है, तत्त्वजीवीपन है । मोह का त्याग करके इन तीन गुण-रत्नो को प्राप्त किया जा सकता है। नाम आदि रूप से परमात्मा की उपस्थिति श्री गणधर भगवतो ने 'जिनागमो' मे परमात्म-दर्शन की अद्भुत कला का विस्तृत वर्णन किया है । उसका तनिक रहस्य शास्त्र-मर्मज्ञ एवं तदनुरूप जीवनयापन करने वाले अनुभवी योगियो के प्रभावशाली वचनो के माध्यम से हम सोचें -- मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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