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________________ इन चारो निक्षेपो के स्वरूप को समझ लेने से परमात्मा के विराट् एव विशद स्वरूप का तथा उनके द्वारा समस्त विश्व पर होने वाले अगणित उपकारो का हमे अनुमान हो सकेगा, जिससे परमात्मा के प्रति जो भक्तिभावना अपने हृदय मे विद्यमान है वह अधिक सुदृढ होगी और श्री अरिहन्त परमात्मा ही हमारे लिये मनन्य शरण-योग्य हैं यह निष्ठा अस्थि मज्जावत् बनी रहेगी। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'सकलार्हत स्तोत्र' के एक श्लोक मे श्री अरिहन्त परमात्मा के विश्वोपकार की प्रशसा में फरमाया है नामाकृति द्रव्यभाव पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे-काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ अर्थ -जो तीर्थंकर परमात्मा अपने नाम, प्राकृति (मूर्ति), द्रव्य एवं भाव स्वरूप अवस्था द्वारा समस्त क्षेत्रो के, समस्त कालो के समस्त प्राणियो को पवित्र करते हैं, उन परमात्मा की हम उपासना करते हैं । अष्ट महाप्रातिहार्ययुक्त समवसरण मे विराजमान श्री तीर्थकर परमात्मा अपनी पैतीस गुणो से युक्त निर्मल वाणी से जिस प्रकार प्राणियो के कर्म-मल को धोकर उन्हें पवित्र करते हैं, उसी प्रकार से उन परमात्मा का नाम, उनकी मूर्ति और उनकी पूर्व-उत्तर अवस्था रूप द्रव्य निक्षेप भी विश्व के प्राणियो को शुभ एव शुद्ध भाव की उत्पत्ति मे परम पालम्बन रूप बनकर निर्मल बनाते है। जिस काल और जिस क्षेत्र मे श्री तीर्थंकर परमात्मा साक्षात् सदेह विचरते हैं तब और समवसरण मे विराजमान होकर भाव तीर्थंकर के रूप मे धर्म देशना प्रदान करते हैं, तब उनके द्वारा भव्य प्राणियो पर जिस प्रकार के अपार उपकार होते है, उसी प्रकार से परमात्मा के नाम, स्थापना एव द्रव्य निक्षेप भी विश्व के प्राणियो के लिये सदा उपकारक बनते हैं। मिले मन भीतर भगवान ३
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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