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________________ अत उन्हे पारसमणि से भी श्रेष्ठ माना है क्योकि पारसमणि लोहे को स्वर्ण बनाती है, परन्तु वह लोहे को स्वय के समान पारसमणि नहीं बनाती। जबकि ये परमात्मा तो अपने अनन्य भक्त को स्व-तुल्य बनाते हैं, शिव-पद का अधिकारी बनाते हैं, अनन्त अव्यावाघ शिव-सुख का भोक्ता बनाते है। प्राथमिक स्तर के माधको के लिये साकार अरिहन्त परमात्मा का आलबन उपकारक है। जिस व्यक्ति को जिस विषय की साधना मे दक्षता प्राप्त करनी हो, उस व्यक्ति को उस विषय की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करनी ही पडती है। भूतल से ऊपर की मजिल पर पहुँचने के लिये सीढी का आलबन लेना ही पडता है, उसी प्रकार मे सर्वोच्च कक्षा पर पहुँचने के लिये प्रारम्भ साकार भक्ति से करना ही पड़ता है । साधना का यह म नैसर्गिक है, अत उसका अपलाप करने वाला व्यक्ति आत्म-विकास मे अग्रसर होने के बदले पीछे की ओर ढकेला जाता है। शब्दातीत कक्षा पर पहुंचने के लिये प्रारम्भ मे शब्द का आश्रय लेना पडता है, उसी प्रकार से परमात्मा के निराकार स्वरूप तक पहुँचने के लिये, उसका अनुभव करने के लिये साकार परमात्म-स्वरूप की उपासना करनी पड़ती है। उस उपासना के अनेक प्रकार हैं। उनमे मुख्य चार प्रकार हैं, जिन्हें जैन परिभाषा मे 'चार निक्षेप' कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु के चार निक्षेप होते हैं । निक्षेप शब्द वस्तु के प्रकार अथवा स्वरूप का उद्बोधक है। मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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