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________________ अज्ञान रूपी अधकार से विमुक्त हो जाता है, यह बात भी शकातीत है । उसमे शर्त इतनी ही है कि अनन्य भाव से श्री अरिहन्त परमात्मा की शरण लेना । (३) जिन्होने राग-द्वेप आदि समस्त प्रकार के क्लेश रूपी वृक्षो को समूल उखाड डाला है, ऐसे परमात्मा के कारण मैं सनाथ हूँ, क्योकि जिन्होंने राग-द्वेप का समूल उच्छेद कर दिया है, ऐसे परमात्मा के सानिध्य मात्र मे भी राग द्वेप आदि आन्तरिक शत्रु आक्रमण करने में समर्थ नही हो पाते। जिम प्रकार सूर्य के ताप के समक्ष कोहरा नही ठहर सकता, उसी प्रकार के राग-द्वे प रहित श्री अरिहन्त परमात्मा के स्वाभाविक तेज के समक्ष रागद्वेष नही ठहर सकते । इस अकाट्य नियम के अनुसार उनकी शरण मे आया हुआ प्राणी भी राग-द्वष को परास्त करने में सक्षम होता है । कहा है कि 'योग-क्षेमकृन्नाथ ।' नाथ उसे कहा जाता है जो हमे अप्राप्त की प्राप्ति कराये और क्षेम अर्थात् प्राप्त वस्तु की सुरक्षा कराये । श्री अरिहन्त परमात्मा मे ये दोनो योग्यताएं हैं, अतः उन्हे विश्व का नाथ कहा गया है और उनकी शरण मे आया व्यक्ति वास्तव मे स्वय को सनाथ अनुभव करता है। चक्रवर्ती एव देवेन्द्र की शरण मे जाने से भी राग-द्वेष के आक्रमण को निष्फल करने का दुष्कर कार्य दुष्कर ही रहता है अर्थात् पूर्ण नहीं होता। वही दुष्कर कार्य श्री अरिहन्त परमात्मा को नाथ के रूप में स्वीकार करके उनका स्मरण करने से सरल हो जाता है, अर्थात् राग-द्वेष सर्वथा निष्क्रिय हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वे अपने शरणागत को वास्तविक सनाथता बक्षीस करते हैं । (४) जिन्हें सुरासुर नरेश्वर नमस्कार करते हैं अर्थात् जो त्रिभुवन द्वारा पूजनीय हैं, ऐसे परमात्मा की मैं एकाग्रचित्त होकर स्पृहा करता हूँ। जो पूजनीय होते है वे पवित्र ही होते हैं और जो पवित्र और पूजनीय हो उनके सान्निध्य की सव इच्छा करते हैं। ऐसा अद्भुत आकर्षण इन दो गुणो मे विद्यमान रहता है। १४ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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