SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ प्रधानाचार्य श्री मोहनलाल जी न लेकर अपने गर्भस्थ बालक को क्षात्रधर्म की ऐसी शिक्षा दी कि उसने अपने पराक्रम से अपने पितृहन्ता खरदूषण से युद्ध की तैयारी की और बाद में राम लक्ष्मण की सहायता से अपने पिता के राज्य को फिर प्राप्त किया। उस राजकुमार का नाम वीर विराध था । इस प्रकार संतान पर माता का प्रभाव पिता की अपेक्षा भी अधिक पड़ता है। किन्तु प्रायः माताएं अपने इस गुरुतर कर्तव्य को न जानकर उसकी अवहेलना करती हुई लाड़ प्यार में बालकों में ऐसे २ कुसंस्कार भर देती हैं, कि भविष्य में वह बालक अपने जीवन से समाज तथा देश को कलंकित करने का प्रधान कारण बन जाते हैं। वालक का हृदय स्फटिक के समान - स्वच्छ, श्वेत वस्त्र के समान निर्मल तथा उपण लाख के समान ग्रहणशील होता है। उसे जैसा भी चाहे रंगा जा सकता है तथा जैसा चाहे आकार दिया जा सकता है। इसी प्रकार बालक के कोमल तथा सरल हृदय में चाहे जैसी श्रद्धा के पाठ भरे जा सकते है। इसी बात को ध्यान मे रखकर शास्त्रकारों ने माता को बच्चे का प्रथम गुरु माना है। अनेक विदेशी विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि बालक जितनी शिक्षा माता की गोद में पाता है उतनी समस्त आयु भर में भी नहीं प्राप्त कर सकता । बालक माताका एक प्रतीक होता है। विदुपी माता का समागस किसी २ सौभाग्यशाली वालक को ही प्राप्त होता है। लोक मे उसी माता को प्रशंसनीय दृष्टि से देखा जाता है जो अपने बालक को व्यवहारदक्ष बनाती है। किन्तु जो माता अपने बच्चों के अन्तःकरण में धर्म के बीज बोए, उसे आत्मा तथा परमात्मा का भान कराए, उसको पुण्य पाप के भेद को बतलाकर उसके हृदयमें अपने प्रात्मा तथा समाज का कल्याण
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy