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________________ जन्म - ऐसे दीन दखियों की सहायता किया करू', जो अपनी दरिक्षावस्था से अत्यन्त पीड़ित होकर भूख की ज्वाला बुझाने के लिये विधर्मी तक बनने को तय्यार हैं। यदि हमारा वैभव ऐसे दीन हीन जनों की सहायता करने में काम न आया तो इस धन को पाने से क्या लाभ ? मेरे मन में दूसरी अभिलाषा यह बनी रहती है कि मैं अत्यधिक धार्मिक विद्या प्राप्त करू, जिससे न केवल मुझे अपने आत्मिक गुणों का भान हो, वरन मेरा मन पौद्गलिक पदार्थो से विरक्त होकर निवृत्ति मार्ग में इस प्रकार लीन हो जावे कि मुझे जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पाप और पुण्य इन नव पदार्थों का ज्ञान होकर मेरा आत्मा स्वपर कल्याण का साधन कर सके। मेरे मन में बनी रहने वाली तीसरी अभिलाषा यह है कि मैं मनुष्य जीवन को सफल बनाने के लिये दोनों समय सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रियाओं को अधिक से अधिक करती रहूं। आजकल मेरे हृदय में यह तीन अभिलाषाएँ ही अधिक बनी रहती हैं।" पाठक इस वार्तालाप से यह समझ गए होंगे कि यह शब्द लक्ष्मी देवी ने अपने पति शाह मथुरादास जी से कहे हैं। अपनी पत्नी के इन वचनों को सुन कर मथुरादास जी वोले "भद्रं ! इस प्रकार की उत्तम इच्छाएँ गर्भावस्था में किसी किसी ही सौभाग्यशालिनी गर्भिणी को हुआ करती हैं। हे देवी! तुम अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक अपनी इन शुभ इच्छाओं को पूर्ण कर सकती हो। ज्ञान सम्पादन करने तथा धार्मिक क्रियाओं के करने की तुमको प्रारम्भ से ही पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। अब तुमको मेरी ओर से भी इन कार्यों में अधिक से अधिक सहायता मिला करेगी। तुम चाहे जितना दान दे सकती हो।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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