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________________ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी यह सुनकर शाह मथुरादास जी बोले "तुम अपने स्वप्न को अवश्य कहो। आज मैं सामायिक में कुछ शीघ्र बैठने वाला था। अब तुम्हारे साथ वार्तालाप करने के उपरान्त ही सामायिक में बैठूगा।" शाह मथुरादास जी के यह शब्द सुनकर लक्ष्मी देवी बोली "भगवन ! अभी अभी मैं निद्रा में पड़ी हुई सो रही थी कि मैंने स्वप्न में एक ऐसा सिंह देखा, जो महान कल्याणकारी, उपद्रवरहित, मंगलमय, सौभाग्यवर्धक तथा किसी भावी कल्याण का सूचक था। उसका रंग सच्चे मोतियों के समान श्वेत था। उसके शरीर में से वज्र तथा हीरे के समान श्वेत ज्योति निकल रही थी। उसके शरीर का श्वेत रंग इतना सुन्दर था कि उसकी उपमा उस मक्खन से ही दी जा सकती है, जिसे कार्तिक मास में कच्चे दूध से निकाला गया हो अथवा वह रजत महाशैल वैताढ्य पर्वत के समान श्वेत था। मैं तो यह कहूंगी कि वह चन्द्रमा की किरणों से भी अधिक श्वेत था। उसका कटिभाग अत्यन्त विस्तीर्ण होते हुए भी मर्यादित, रमणीय, मनोहर, दर्शनीय तथा कृश था। उसका मुख खुला हुआ था, जिस में उसकी गोल २ स्थूल तथा तीक्ष्ण दाढ़ें एक दूसरी से अत्यधिक सटी हुई स्पष्ट दिखलाई पड़ती थी। उसके तालु तथा उसकी जिह्वा का रंग उत्तम जाति के कमल के समान रक्तवर्ण था। फिर भी वह दोनों कोमल तथा यथाप्रमाण थे। उसकी दोनों यांखें विद्य त् के समान चमक रही थी। उसकी जांघे स्थूल, दृढ़े तथा मांसल थीं। उसका स्कन्ध भाग पूर्णतया ऊपर को उठा हुआ था। उसकी गर्दन के चारों ओर बड़े कोमल लम्बे २ बाल थे, जो आक की रुई. से भी मुलायम थे। उनका रंग खिले हुए केशर के फूल के समान होने के कारण दूर से ही चमक रहा था।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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