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________________ भावीसूचक स्वप्न अनुभव हो गया है। उत्तम स्वप्न के बाद सो जाने से उस स्वप्न का प्रभाव नष्ट हो सकता है। अस्तु अब शेष रात्रि जाग कर उनके साथ वार्तालाप करते हुए बितानी चाहिये।" इस प्रकार मन ही मन विचार करके लक्ष्मीदेवी ने शय्या का त्यागन किया। उन्होंने नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम वस्त्र धारण किये। फिर वह अपने पतिदेव शाह मथुरादास जी के कमरे की ओर आई। शाह मथुरादास जी भी इस समय शय्या त्याग करके उठे ही थे। वह शौचादि नित्य कर्मों से निपट कर सामायिक में बैठने वाले थे कि लक्ष्मीदेवी ने उनके द्वार के कुडे को खड़काया। द्वार का शब्द सुनकर शाह मथुरादास जी ने कुडा खोला तो लक्ष्मीदेवी ने अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनका अभिवादन किया। शाह मथुरादास उनको इस असमय आते देखकर आश्चर्य में पड़ कर बोले___ "अरे! तुम इस समय कैसे आगई ! आज तुम्हारा मुख प्रसन्न है। तुम्हारे रोम रोम से प्रसन्नता टपकी पड़ती है। तुमको ऐसा कौन सा लाभ हो गया है ? अच्छा प्रथम अन्दर आकर बैठो।" .. . __इस पर लक्ष्मी देवी ने अन्दर आकर एक आसन पर बैठते हुए उनसे कहा. "प्राणनाथ ! आज मैंने अभी अभी एक उत्तम स्वप्न देखा है। यद्यपि मैं स्वप्न के फल को नहीं जानती, किन्तु मेरा मन उस स्वप्न के कारण अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है। आप स्वप्न शास्त्र के अनुभवी हैं। अतएव मैं उसका फलादेश जानने के मिए आपके पास आई हूं। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अपना स्वप्न आपके सम्मुख निवेदन करूं।" - - - -
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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