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________________ प्रतिवादीभयंकर मुनि सोहनलाल जी में आता है कि आंखों के अंधे का नाम नयनसुख रख दिया जाता है। वास्तव में नाम का प्रयोग व्यवहार के लिये ही किया जाता है, क्योंकि नाम ज्ञान का प्रधान साधन है। काठ, पत्थर, चित्र, पासों आदि को किसी भी रूप मे मान लेना स्थापना कहलाता है । स्थापना दो प्रकार की होती है। एक तदाकार स्थापना, दूसरी अतदाकार स्थापना। किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का उसी के आकार का चित्र अथवा मूर्ति बनाना तदाकार स्थापना है। जैसे महात्मा गांधी अथवा नेहरू जी का चित्र असली महात्मा गांधी या नेहरू जी न होते हुए भी उनके आकार का होने के कारण तदाकार स्थापना कहलाता है। अतदाकार स्थापना में किसी चीज़ को बिना आकार का ध्यान रक्खे किसी भी प्रकार की मान लेते है। जैसे शतरंज के पासों को राजा, मंत्री, ऊंट, हाथी, घोड़ा तथा पैदल मान कर दोनों खेलने वाले उनके द्वारा कृत्रिम युद्ध करते हैं। किन्तु उनमें से कोई भी पासा राजा, मंत्री ऊंट, हाथी, घोड़े या पैदल की शकल का नहीं होता। इसे अतदाकार स्थापना कहा जाता है। तदाकार स्थापना तथा अतदाकार स्थापना दोनों से ही एक परिमित प्रयोजन को सिद्ध किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति चाहे कि वह शवरंज के घोड़े से खेलने के अलावा उस पर सवारी भी करले तो यह सम्भव नहीं है। इसका एक और उदाहरण भी हो सकता है। कोई व्यक्ति अपना मकान बनवाने के लिये अपने प्रस्तावित मकान का नकशा नक्शेनवीस से बनवा कर उसे
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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