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________________ गुरु सेवा ०१५ जानते थे कि गुरु सेवा से बढ कर दूसरा कोई तप नहीं है। श्रतएव आप ने इस समय पूर्ण ध्यानपूर्वक गुरु की सेवा करनी आरम्भ की। आपके गुरु मुनि धमचन्द जी आपकी दीना के वाद पटियाला आगए थे। अतएव अापके संचत् २६३४ तथा १६३५ के दो चातुर्मास पटियाले में ही हुए। पटियाला में आप गुरु जी को वैयावृत्य करते थे और उनकी चिकित्सा भी कराते थे। जब उनको पटियाला की चिकित्सा से कोई लाभ न हुआ तो आप उनको लेकर लाहौर गए । लाहौर में उनकी चिकित्सा अधिक कुशल चिकित्सकों द्वारा कराई गई। किन्तु गुरु महाराज मुनि धर्मचन्द जी के असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण उनको लाहौर की चिकित्सा से भी कोई लाभ न हुआ। लाहौर मे आपको चौबीस घंटे गुरु जी की सेवा करनी पड़ती थी। जिन लोगों ने आपके उन दिनों के सेवा जीवन को देखा है, उन्होंने अापकी सेवा भावना की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। जब गुरु तथा शिष्य दोनों को विश्वास हो गया कि रोग प्राणघातक है और अब प्राणों के बचने की कोई सम्भावना नहीं है तो मुनि सोहनलाल जी ने मुनि धर्मचन्द जी को अन्त समय में सथारा करा कर अपने अन्तिम कर्तव्य को भी पूर्ण किया । ठाणांग सूत्र में कहा गया है कि ' "तिएणं दुप्परियारं समणाउसो तंजहा अम्मापिउणोभटिस्स . धम्मायरिस्स संथाओविणं ......." ठाणांग सूत्र, स्थान ३, उद्देश्य १, सूत्र २३ तीन पुरुषों के उपकार का बदला नहीं दिया जा सकता-माता पिता का, सरण पोषण करने वाले स्वामी का तथा धर्माचार्य का।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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