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________________ १८० प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी इस पर विनों ने उत्तर दिया "महाराजाधिराज ! आपका रूप देखने की हम लोगों को बड़ी भारी अभिलाषा थी। क्योंकि हम ने स्थान स्थान पर आपके रूप की अत्यधिक प्रशंसा सुनी थी। आज हमने यह प्रत्यक्ष देख लिया कि आपके रूप की जैसी प्रशंसा लोक में हो रही है वह उससे भी अधिक सुन्दर है। इस लिये आनन्द के उद्रेक से हमारे मस्तक अपने आप डुलने लगे।" ___ अपने रूप की इस प्रकार प्रशंसा सुन कर चक्रवर्ती को भी अपने रूप का अभिमान हो आया और वह विप्रों से बोले ___ "आप लोगों ने जो मेरा रूप इस समय देखा है वह तो ठीक है, किन्तु जिस समय मैं वस्त्रालंकारों से विभूपित हो कर राज सभा में रत्नजटित सिंहासन पर बैठूगा और अंगरक्षक मेरे पीछे तथा छत्तीस सहस्र मुकुटबंद राजा मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े होंगे तथा अन्य सभासद् जिज्ञासु नेत्रों से मेरी ओर इस प्रकार देख रहे होंगे कि उनके कर्ण मेरा एक एक शब्द सुनने के लिये लालायित हों तो उस समय तुम मेरे रूप के अद्भुत चमत्कार से एक दम आश्चर्यचकित हो जाओगे।" चक्रवर्ती के यह शब्द सुन कर देवों ने उत्तर दिया __ “राजन् ! आपकी राजसभा में जाकर भी हम आपके रूप के चमत्कार को अवश्य देखेगे।" ऐसा कह कर विप्र वहां से चले गए। कुछ समय पश्चात चक्रवर्ती अपनी राजसभा में तेजपूर्ण विभूति के साथ पधारे तो उस समय की शोभा का वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहिर है। इस समय उन्होंने अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ विशेष शृङ्गार किया था, क्योंकि उनको ध्यान
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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