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________________ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी तथा हमारे कुल मे मुकुटमणि के समान श्रेष्ट हो। अपने हानि लाभ को भी तुम खूब समझते हो। फिर भी मैं पिता होने के नाते तुमसे पूछता हूं कि तुम्हारे विवाह के सम्बन्ध में क्या विचार हैं ? क्योंकि तुम्हारी आयु विवाह योग्य हो चुकी है। अपने पिता जी के मुख से इन शब्दों को सुन कर सोहनलाल जी ने उनको अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया। सोहनलाल-पिता जी! आप गुरुजनों की कृपा से मैं ब्रह्मचर्य के महत्व को समझता हूं। फिर भी मैं गृहस्थ जीवन मे प्रवेश करके विवाह करना बुरा नहीं समझता। आपने एक बार मुझे तीन प्रकार के मनुष्य बतलाए थे। एक वह जो अपनी पूजी से व्यापार करके काम चलाते है। वह उत्तम है। दूसरे वह जो पनी अल्प पूजी से काम चलाने में असमर्थ होकर ऋण लेकर काम चलाते हैं। वह मध्यम गिने जाते हैं। तीसरे वह जो न तो अपनी पूंजी से काम चलाते हैं और न ऋण लेते है, वरन् दूसरों की नौकरी करके काम चलाते हैं। ऐसे व्यक्ति ऊपर से सच्चा व्यापारी होने का ढोंग किया करते हैं। वह अधम गिने जाते है। इसी प्रकार जो जीव पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह वंदनीय है। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ होने के कारण विवाह करके अन्य स्त्रियों मे माता, वहिन तथा पुत्री की भावना रखते है वह मध्यम है। किन्तु जिनमे न तो ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति है और न वह विवाह करते है ऐसे व्यक्ति स्वय सदाचार से पतित होकर दूसरों को भी सदाचार से पतित कराते हैं। ऐसे अधम व्यक्ति निन्दनीय हैं। अभी मैं अपने को ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ पाता हूँ। जिस दिन भी मैं अपने को असमर्थ समझूगा, आप श्री के चरणों मे निवेदन करूंगा। अभी तो आप मुझे इस झंझट मे न डाल कर निश्चितता से
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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