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________________ सगाई विभूसा इत्थि-संसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ दर्शवकालिक सूत्र, अध्ययन ८, गाथा ५७ श्रात्मशोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृङ्गार, स्त्रियों का मसर्ग तथा पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन सब तालपुट विष के समान भयंकर हैं। ससार में बंधन तो अनेक होते हैं, किन्तु मोह के समान कोई भी दृढ़ बंधन नहीं होता। यदि मोहवंधन को ही संसार कहा जावं तो अत्युक्ति न होगी। यदि संसार मे मोहबंधन न हो तो इग्न दु.खमय संसार मे किसी भी प्राणी की आसक्ति न हो । मोहबंधन मुख्यत पुरुप को स्त्रो का तथा स्त्री के लिये पुरुप का होता है। भगवान् नेमिनाथ अथवा जम्बू कुमार के समान इस मोहबंधन को काटने वाले विरले ही वीर होते है। किसी कवि ने कहा है कि यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता । एकैकस्य समं नास्ति किमु यत्र चतुष्टयम् ।। युवावस्था, वैभव, रूप, अधिकार तथा अविवेक जहां इन में से एक का भी निवास हो, वह जो कुछ भी कर दे सो थोड़ा है। किन्तु
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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