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________________ १६८ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी ___"सोहनलाल जी ! मैं ने आपके अनेक प्रशंसनीय श्रेष्ठ कार्यों की प्रशंसा सैकड़ों पुरुषों के मुख से सुनी है। मैं जानती हूँ कि आप गृहस्थ में रहते हुए भी एक आदर्श त्यागी हो। सोहनलाल जी! मेरी तो यही भावना है कि जैसे आपने भविष्य की पीढ़ियों के लिए सच्चे श्रावक का आदर्श उपस्थित किया है, उसी प्रकार आप भविष्य में होने वाले साधुओं के लिए भी आदर्श साधु का उदाहरण उपस्थित करें। आपकी तीव्र प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धि, अटल धैर्य तथा उत्कृष्ट विनय आदि गुणों को देख कर यह प्रतीत होता है कि यदि आप संयम को ग्रहण करोगे तो शीघ्र ही अपने इन आदर्श गुणों के कारण हम सभी को आत्मकल्याण का श्रेष्ठतर मार्ग दिखलाते हुए सम्पूर्ण चतुर्विध संघ के मुकुटमणि बन जाओगे।" महासती के इन वचनों को सुन कर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया ___"महासती जी ! मेरी तो रातदिन यही भावना बनी रहती है कि वह कौन सा धन्य दिन होगा जव मैं अन्तरंग तथा वाह्य सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निष्परिग्रही वनूगा। महासती जी ! मेरा अन्तरात्मा तो यही कहता है कि मैं निवृत्ति मार्ग को तो अवश्य ग्रहण करूगा, किन्तु इसमे कुछ समय तो लगना ही है। हां, जहां आप जैसी पवित्र आत्माओं का श्राशीर्वाद सुलभ हो वहां तो जो कार्य अनेक वर्षों में बनने वाला हो वह कुछ मास में ही बन सकता है।" इस पर एक अन्य सती ने महासती पार्वती जी महाराज से कहा "महाराज साहिब ! इनकी तो सगाई होने वाली है, फिर यह संयम कैसे लेंगे?"
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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