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________________ १६६ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी " हे भव्य प्राणियों ! इस संसार में कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है । प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है । यह शरीर भी स्थायी नहीं है । किन्तु यह जान कर भी मनुष्य धार्मिक कार्यों में प्रमाद करता ही रहता है । प्रमाद तो उसी को करने का अधिकार है जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो और जो मौत आने पर भाग सकता हो अथवा जिसको यह निश्चित रूप से पता हो कि मैं कभी नहीं मरू ंगा । शास्त्रों में सगर चक्रवर्ती के पुत्रों का वर्णन आता है कि कहां तो वह परम उत्साह से गंगा नदी के प्रवाह को अपने नगर से लाने का प्रयत्न कर रहे थे, और कहां उनको मृत्यु के सुख में पड़ना पड़ा । एक कवि ने कहा कि श्रागाह अपनी मौत से, कोई बशर नहीं । सामान सौ बरस के हैं, कल की खबर नहीं ॥ "किसी को भी यह पता नहीं कि मृत्यु उसको कब धर दबावे गी । सगर चक्रवर्ती के पुत्रों पर काल का ऐसा भोंका आया कि उन साठ हजार पुत्रों में से कोई भो जीवित नहीं बचा। जहां कुछ समय पूर्व चहल पहल थी, वहां सब ओर शून्यता ही शून्यता का साम्राज्य हो गया । जिस समय यह समाचार सगर चक्रवर्ती को मिला तो वह शोक से मूर्छित हो गए। किन्तु होश मे आने पर उन्होंने अपने मन में यह विचार किया कि यह संसार असार है । कल मैं साठ हजार पुत्रों का पिता था, किन्तु आज उनमे से कोई भी जीवित नहीं है । वास्तव में यह संसार स्वप्नवत् है । इसका नाश होते लेशमात्र भी देर नहीं लगती । तन धन तथा यौवन सभी अस्थिर हैं । यह सब वस्तुएं बिजली के कौंधे के समान चंचल हैं। जो आत्मा इन नाशवान् वस्तुओं में आसक्त रहता है उसको कभी भी अविनाशी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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