SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . स्वधर्मीवत्सलता १५३ सोहनलाल-भाई साहिब ! हमारी दूकान पर रेशम की कुछ गांठे आई हैं। उनमें एक गांठ का रेशम बहुत उलझा हुआ तथा स्थान स्थान पर कटा हुआ है । यदि वह गांठ आपके काम श्रा जावे तो आप ले लेना ।। श्रावक-सोहनलाल जी! हमारे पास अभी रुपये का प्रबन्ध नहीं है। सोहनलाल-आप चल कर देखो तो सही। पसन्द आजावे तो जैसे जैसे माल बिकता जावे दाम देते जाना। इस प्रकार सोहनलाल जी ने उसे अपनी दूकान पर ला कर वह माल दिखलाया और उनसे कहा "यह माल हमारे काम का तो है नहीं। यदि आप ले जावेंगे तो आपकी कुछ रकम बन जावेगी और आपको कुछ लाभ भी हो जावेगा।" । अन्त में सोहनलाल जी ने वह गांठ उस श्रावक को दो सौ रुपयों में दे दी और वह उसको उठवा कर अपनी दूकान पर ले आया। किन्तु अपनी दूकान पर लाने पर जब उसने गांठ को खोला तो उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह गांठ अन्दर से बिलकुल कटी या उलझी हुई नहीं थी। अतएव उसने सोहनलाल जी के पास वापिस आकर उनसे कहा__श्रावक-"भाई जी ! उस गांठ में तो सारा रेशम ठीक है। केवल ऊपर की पांच छै आटियां ही उलझी हुई हैं। वह तो १५००) से भी अधिक का माल है। आप उसे वापिस ले लें । उस पर मेरा अधिकार नहीं है।" उसकी इस बात को सुन कर सोहनलाल जी बोले "भाई ! यदि उसका लाभ हमारे भाग्य में होता तो वह माल हमको पहिले ही दिखलाई दे जाता। अब तो यह तुम्हारा
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy