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________________ १५२ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी वार्तालाप को सुन कर उसे सुनने के लिये छिप कर खड़े हो गए, जिससे उन्होंने उनके पूरे वार्तालाप को सुन लिया। उनकी कष्ट कथा को सुन कर सोहनलाल जी का कोमल हृदय उन दोनों के प्रति करणा तथा श्रद्धा से भर गया। उनके वार्तालाप को सुन कर सोहनलाल जी अपने मन में विचार करने लगे। ___ "धन्य है इन दोनों के इन श्रेष्ठ विचारों को ! जिस प्रकार युवावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करना कठिन है उसी प्रकार दरिद्रावस्था में अपने मन में दुर्भावना उत्पन्न न होने देना भी कठिन है । ऐसे पुरुषों को वार वार धन्यवाद है। उनकी जितनी भी प्रशंसा की जावे थोड़ी है। किन्तु मैं इनकी सहायता करू भी तो किस प्रकार कर। यदि इनको रुपया कर्ज या दान रूप दूंगा तो यह कभी भी स्वीकार नही करेंगे। अतएव इनकी सहायता इस प्रकार करनी चाहिये कि इनको सहायता करने वाले की सहायता करने की नीयत का भी पता न चले और इनका काम भी चल जावे।" इस प्रकार मन ही मन विचार करके सोहनलाल जी उन दम्पति से विना वार्तालाप किये ही उलटे पैरों चुप चाप लौट कर अपनी दूकान पर आ गये। अपनी दुकान पर बैठ कर वह उन दोनों की सहायता करने के उपाय के सम्बन्ध में विचार करने लगे। अन्त में उनको एक उपाय सूझ ही गया। सोहनलाल जी अपनी दूकान पर सोने चांदी के अतिरिक्त रेशम की गांठों का व्यापार भी किया करते थे। उन्होंने उनमें से एक गांठ को खोल कर उसमें से कुछ ऊपर की आटियों को जान बूझ कर उलझा दिया तथा स्थान स्थान पर काट दिया । इसके पश्चात् उन्होंने उस व्यक्ति की दूकान पर जाकर उससे कहा
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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