SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३७ सर्राफे की दूकान की कितनी बड़ी आवश्यकता है ? सोहनलाल-मामा जी ! मैं ने नीतिग्रन्थों में पढ़ा है कि जो गृहस्थ न्याय नीति पूर्वक कमाए हुए अपने धन को नित्य प्रति दान आदि सत्कार्यों में व्यय करते हैं वह महापुरुष प्रशंसनीय तथा वंदनीय हैं। किन्तु जो मनुष्य समर्थ होने पर भी पुरुषार्थ को त्याग कर अपने पूर्वजों की उपार्जित सम्पत्ति का अपव्यय करते हुए विषयानन्द में लीन रहते हैं उनका जीवन मृतक तुल्य एवं निन्दनीय है। सोहनलाल जी के उस छोटी सी आयु में ही ऐसे प्रशंसनीय विचार सुन कर लाला गंडा मल अत्यंत प्रसन्न हुए और कहने लगे गंडा मल-वत्स ! तुम अपने लिये कौन सा व्यापार ठीक समझते हो? . सोहनलाल-मामा जी! जिस व्यापार में कम से कम प्रारम्भ हो तथा जिसके कारण देश जाति तथा समाज का अहित न हो सके तथा जिसमें प्रामाणिकतापूर्वक कार्य करने पर किसी के लाभ में अंतराय न डलते हुए जीवन निर्वाह योग्य उचित लाभ हो उसी व्यापार को करना मैं पसंद करता हूं। मामा जी-तो बेटा तुम्हारी समझ में ऐसा व्यापार कौन सा है ? सोहनलाल जी-मामा जी! मेरी समझ में सर्राफा ऐसा ही व्यापार है। ___ मामा जी-किन्तु सर्राफे मे अत्यंत चतुरता की आवश्यकता है। उसमें लेशमात्र भी गलती होने पर सहस्रों रुपये की हानि हो सकती है । इस व्यापार में प्रलोभनों की भी कोई कमी नहीं है।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy