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________________ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी मध्यान्ह का समय था । ज्येष्ठ मास की गर्मी के कारण सूर्य देव अपनी सहस्रों किरणों का उपयोग संसार को जलाने मे कर रहे थे । इसीलिए उनके भय के कारण सब कोई दोपहर के समय अपने अपने घर में मुंह छिपाए पड़े हुए थे । वन, जगल, मैदान तथा नगर सभी में से आग की लपटे सी निकलती हुई दिखलाई दे रही थीं। नदियों तथा तालाबों का जल उष्णता के कारण उवला पड़ता था । गाय भैंसे उष्णता के कारण चरने का विचार छोड़ कर वृक्षों के नीचे खड़ी खड़ी जुगाली कर रही थीं । पक्षीगण दोपहर में चुग्गा खोजने का कार्य छोड़ कर अपने अपने घोंसलों मे लिये बैठे थे । सम्बडियाल नगर मे भी उष्णता के कारण बाजारों मे सुनसान सा दिखलाई देता था । सब लोग अपनी अपनी दुकानों के अन्दर के भाग में बैठे हुए दुकानों पर आने जाने वाले ग्राहकों पर दृष्टि गड़ाए थे। ऐसे समय एक तिखण्डे के कमरे में एक युवती चिन्ता में अत्यधिक निमग्न थी । यद्यपि कमरा अत्यधिक सजा हुआ था. किन्तु युवती का ध्यान उस आर लेशमात्र भी नहीं था। कमरे के वीच मे एक बड़ा भारी कपड़े का पंखा लगा हुआ था, जिम मे एक मोटी डोरी वंधी हुई थी । एक बूढ़ी दासी कमरे के बाहर बैठी हुई उस पंखे को खींचती खींचती ऊंघ रही थी, जिस से युवती के तन बदन पर पसीना आ रहा था । किन्तु वह अपने ध्यान मे इतनी अधिक लीन थी कि उसको अपने शरीर की लेशमात्र भी सुधि नहीं थी । १०० 1 युवती बहुत देर तक इसी प्रकार अपने विचारों में खोई हुई सी सोचती रही। अंत में वह अपने आप ही कुछ बड़बड़ाने लगी "क्या मेरा सोहनलाल दूसरों के मामलों मे पड़ा रह कर
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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