SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री रत्नत्रयधर्म पूजन दान अपक्षा मे ता सम्यक दृष्टि सदा ही मुक्त है । शुद्ध त्रिकान्नी ध्रुव स्वरूप निज गुण अनत से युक्त है ।। शास्त्रो के पाठी अफ श्रुत का आदर है बहुमानाचार । नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अनिन्हव है आचार ।।५।। आठ अग है यही ज्ञान के इनमे दूढ हो सम्यक जान । पाच भेद है पति श्रुत अवधि मन पर्यय अरु केवलज्ञान।।६।। मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक अरु छत्तीसभेद । श्रुत के प्रथम करण चरण द्रव्य उअनुयोग सु भेद ।।७।। द्वादशाग चौदह पूरब परिकर्म चूलिका प्रकीर्णक। अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेको है सम्यक ॥८॥ अवधि ज्ञान त्रय देशावधि परपावधि सर्वावधि जानो । भवप्रत्यय के तीन और गुणप्रत्यय के छह पहिबानो।।९।। मन पर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानो । नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथक मानो ॥१०॥ जय जय सम्यक ज्ञान अप्ट अगो से युक्त मोक्ष सुखकार । तीन लोक मे विमल ज्ञान की गूजरही हैं जय जयकार ।।११।। ॐ ह्री श्री अष्टविध सम्यक् ज्ञानाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य नि । सम्यक चारित्र निजस्वरूप मे रमण सुनिश्चिय दो प्रकारचारित व्यवहार । श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ।।१।। पच उदम्बर जय मकार तज, जीवदया, निशि भोजन न्याग । देववन्दना जल गालन निशिभोजन त्यागी श्रावक जान ।।२।। दर्शन ज्ञान चरित्रमयी ये त्रेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नष्ठिक साधक तीनो श्रावक के है भेद प्रधान ॥३॥ परम अहिंसा घटकायक के जीवो की रक्षा करना । परमसत्य है हितमित प्रिय वच सरलसत्य उर मे धरना ।।४।। परम अचौर्य, बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । पच महाव्रत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ।।५।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy