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________________ ४८ जैन पूजांजलि भावलिंग बिन द्रव्यलिंग का तनिक नहीं कुछ मूल्य है। अविरत चौथा गुणस्थान भी शिव पथ में बहुमूल्य है ।। अशुचिपदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निर्विचिकित्सा अंगा देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओ में रूचि अमूडद्रष्टि सुअंग ॥ पर दोषो को ढकना स्वगुण वृद्धि करना उपगृहन अंग । धर्म मार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरणसुअंग॥६॥ साधर्मी मे गौ बच्स सम पूर्ण प्रीति वात्सल्य सुअंग। जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावनम अंग।७॥ आठ अग पालन से होता है सम्यक दर्शन निर्मला सम्यक ज्ञान चरित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥८॥ शका कांक्षा विचिकित्सा अरु मूढदृष्टि अनउपगूहन । अस्थितिकरण अवात्सल्य अप्रभावना वसु दोष सघन ।।९।। कुगुरुकुदेव कुशास्त्र और इनके सेवक छ अनायतन । देव पूढता गुरुमूढता लोक पूढता तीन जघन।।१०।। जाति रूपकुल ऋद्धि तपस्या पूजा और ज्ञान मद आठ । मूल दोष सम्यक दर्शन के यह पच्चीस तजो मद आठ ॥११॥ जय जय सम्यक दर्शन आठों अंग सहित अनुपम सुखकार । यही धर्म का सुदृढ मूल है इसकी महिमा अपरम्पार ॥१२॥ ॐ ही श्री अष्टाग सम्यक् दर्शनाय अनर्घपदप्राप्तये अयं नि । सम्यक ज्ञान निज अभेद का ज्ञान सुनिश्चिय आठ भेद सब हैं व्यवहार । सम्यक ज्ञान परम हितकारी शिव सखदाता मंगलकार।।॥ अक्षर पद वाक्यो का शुद्धोच्चारण है व्यंजनाचार । शब्दो के यथार्थ अर्थ का अवधारण है अर्थाचार ।।२।। शब्द अर्थ दोनो का सम्यक जानपना है उभयाचार । योग्यकाल मे जिनश्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ।।३।। नम्र रूप रह लेशन कुद्धत होना ही है विनयाचार । सदा ज्ञान का आराधन, स्मरण सहित उपध्यानाचार।।४।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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