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________________ २८७ श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन जो अक्षय भाव के द्वारा सर्व कषायें लेगा तू जीत । मुक्ति वधू उसका वरने आएगी उर में घर कर प्रीत ।। प्रतिनारायण रावण की दुष्टेच्छा हुई न किंचित पूर्ण । बाली मुनि के एक अंगूठे से हो गया गर्व सब चूर्ण ॥१२॥ मंदोदरी सहित रावण ने क्षमा प्रार्थना की तत्क्षण । जिन मुनियों के क्षमा भाव से हुआ प्रभावित अतर मन।।१३।। मै अब प्रभु चरणों की पूजन करके निज स्वभाव ध्याऊँ। आत्मज्ञान की प्रचुर शाक्ति पा निजस्वभाव मे मुस्काऊँ ॥१४॥ राग मात्र को हेय जानकर शद्ध भावना ही पाऊँ। एक दिवस ऐसा आए प्रभु तुम समान मैं बन जाऊँ ॥१५॥ अष्टापद कैलाश शिखर को बार बार मेरा बदन । भाव शुभाशुभ का अभाव कर नाशकरूँ भव दुख क्रन्दन ॥१६॥ आत्म तत्व का निर्णय करके प्राप्त करूं सम्यक दर्शन । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ धन्य धन्य हो यह जीवन ॥१७॥ ॐ ही श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो पूर्गाय नि स्वाहा । अष्टापद कैलाश की महिमा अगम अपार । निज स्वरूप जो साधते हो जाते भवपार । । इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो नम । श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन तीर्थराज सम्मेदाचल जय शाश्वत तीर्थ क्षेत्र जय जय । मुनि अनत निर्वाण गये हैं पाया सिद्ध स्वपद शिवमय ।। अजितनाथ, सभव, अभिनन्दन, सुमति, पा, प्रभु मगलमय । श्री सुपार्श्व चन्दा प्रभु स्वामी पुष्पदन्त शीतल गुणमय ।। जय श्रेयास विमल, अन्त प्रभु धर्म, शान्ति जिन कुन्थसदय । अरह, मल्लि, मुनिसुव्रत स्वामी नमिजिन, पार्श्वनाथ जय जय ।। बीस जिनेश्वर मोक्ष पधारे इस पर्वत से जय जय जय । महिमा अपरम्पार विश्व मे निज स्वभाव की जय जय जय ॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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