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________________ २८६ जैन पूजांजलि पर कतृत्व विकल्प त्याग कर, सकल्पों को दे तू त्याग । सागर की चंचल तरग सम तुझे डुबो देगी तू भाग । । शुद्धानन्द स्वरूप आत्मा है अनर्घ्य पद का स्वामी । धुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो त्रिभुवन नामी ।।ऋषभ ।।९॥ ॐ ही श्री अष्टापद कैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णायं 5 जयमाला अष्टापद कैलाश से आदिनाथ भगवान । मुक्त हुए निज ध्यानधर हुआ मोक्ष कल्याण ॥१॥ श्री कैलाश शिखर अष्टापद तीन लोक मे है विख्यात । प्रथम तीर्थकर स्वामी ने पाया अनुपम मुक्ति प्रभात ॥२॥ इसी धरा पर ऋषभदेव को प्रगट हुआ था केवलज्ञान । समवशरण मे आदिनाथ की खिरीदिव्यध्वनि महामहान ।।३।। राग मात्र को हेय जान जो द्रव्य दृष्टि बन जायेगा । सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करेगा शुद्ध मोक्ष पद पायेगा ।।४।। सम्यक्दर्शन की महिमा को जो अतर मे लायेगा । रत्नत्रय की नाव बैठकर भव सागर तर जायेगा ॥५॥ गुणस्थान चौदहवाँ पाकर तीजा शुक्ल ध्यान ध्याया । प्रकृति बहात्तर प्रथम समय मे हर का अनुपमपद पाया ।।६।। अतिम समयध्यान चौथा ध्या देह नाश कर मुक्त हुए । जा पहुचे लोकाग्र शीश पर मुक्ति वधू से युक्त हुए ।।७।। तन परमाणु खिरे कपूरवत शेष रहे नख केश प्रधान । मायामय तन रच देवो ने किया अग्नि सस्कार महान ।।८।। बालि महाबालि मुनियों ने तप कर यहाँ स्वपद पाया । नागकुमार आदि मुनियों ने सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ॥९॥ यह निर्वाण भूमि अति पावन अति पवित्र अतिसुखदायी । जिसने द्रव्य दृष्टि पाई उसको ही निज महिमा आयी ।।१०।। भरत चक्रवर्ती के झरा बने बहात्तर जिन मन्दिर ।। भूत भविष्यत् वर्तमान भारत की चौबीसी सुन्दर ॥११॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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