SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १९० जैन पूजांजलि निज में निज पुरुषार्थ कर तो भव बंधन सब कट जायेंगे । निज स्वभाव में लीन रहूँ तो कमों के दुख मिट जायेगे । । एक शतक सोलह गणधर थे मुख्य वज्र गणधर स्वामी । प्रमुख आर्यिका अनंतमति थी द्वादश सभा विश्वनामी ॥२॥ अहिंसादि पाँचो व्रत की पच्चीस भावनाए भाऊँ। पच पाप के पूर्ण त्याग की पाँच भावनाऐ ध्याऊँ ॥३॥ ध्याऊ मैत्री आदि चार, प्रशमादि भावना चार प्रवीण । शल्य त्याग की तीन भावना, भवतनभोग त्याग की तीन ।।४।। दर्शन विशद्धि भावना सोलह अतर मन से मैं ध्याऊँ। क्षमा आदि दशलक्षण की दश धर्म भावनाएं पाऊँ ।।५।। अनशन आदि तपो की बारह दिव्य भावनाए ध्याऊँ। अनित्य अशरण आदि भावना द्वादश नित ही में भाऊँ ॥६॥ ध्यान भावना सोलह ध्याऊँतत्त्व भावना भाऊँसात । रत्नत्रय की तीन भावना अनेकात की एक विख्यात ॥७॥ श्रुत भावना एक नित ध्याऊँ अरु शुद्धात्म भावना एक । कब निर्ग्रन्थ बनू यह भाऊँ द्रव्य आदि भावना अनेक ॥८॥ एक शतक पच्चीस भावनाएं मैं नित प्रति प्रभु भाऊँ । मनवचकाय त्रियोग सवारूँ शुद्ध भावना प्रगटाऊँ ॥९॥ इस प्रकार हो मोक्षमार्ग मेरा प्रशस्त निज ध्यान करूँ।। देव आपकी भाति धार सयम निज का कल्याण करूँ ॥१०॥ चार औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिक परभाव । इन चारो के आश्रय से ही होती है अशुद्ध पर्याय ॥११॥ इन चारो से रहित जीव का एक पारिणामिक निजभाव । पचमभाव आश्रय से ही होती प्रकट सिद्ध पर्याय ।।१२।। पच महावत पच समिति प्रयगुप्ति व्रयोदश विधिचारित्र । अष्टकर्म विषवृक्ष मूल को नष्ट करूँ घर ध्यान पवित्र ॥१३॥ पचाचारयुक्त, परके प्रपच से रहित ध्यान ध्याऊँ। निरुपराग निदोषनिरजन निज परमात्म तत्त्व पाऊँ ॥१४॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy