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________________ १८३ - श्री अभिनन्दननाथ जिन पूजन देवालय में देव नहीं है मनमंदिर में देव। अतमुखका दख स्वयं तु महादेव स्वयमेव है ।। पाँचों इन्द्रिय वश में करके चार कषायें मंद करु।' मन कपि की चंचलता रोकूँ उर में निज आनंद भर १३॥ सम्यक दर्शन को धारण कर ग्यारह प्रतिमाएँ थारु। क्रमक्रम से इनका पालन कर श्रेष्ठ महावत स्वीकारूँ ॥१४॥ इस प्रकार प्रभु पथपर चलकर निज स्वरुप पाजाऊँगा । निज स्वभाव के अनुभव से ही महामोक्ष पद पाऊँगा ॥१५॥ ॐही श्री समवनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या नि । संभव प्रभ के पद कमलभाव सहित उर धार। मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-श्री सभवनाथ जिनेन्द्राय नमः । श्री अभिनन्दननाथ जिन पूजन अभिनन्दन अभ्यध्न अयोगी अविनश्वर अध्यात्म स्वरूप । अमित ज्योति अभ्यर्च आत्मन् अविकारी अतिशुद्ध अनूप ।। रत्नत्रय की नौका पर चढ़ आप हुए भवसागर पार । सकल कर्म मल रहित आप की गंज रही है जयकार ॥ ॐ ही श्री अभिनन्दनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर संघौषट, * ही श्री अभिनन्दननाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, *ही श्री अभिनन्दनाथ जिनेन्द्र अनमम सन्निहितो भव भव वषट् । क्षीरोदधि का धवल दुग्धसम अति निर्मल जल मलहारी । जन्म जरा मृतरोग नशाक पाऊ शिवपद अविकारी ॥ हे अभिनन्दननाथ जगत्पति भव भय भजन दुखहारी । जन मन रजन नित्य निरजन जगदानन्दन सुखकारी ॥॥ *ही श्री अभिनन्दनायजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । मलयागिर कर बावन चन्दन लाऊँ शीतलताकारी । भव भव का आताप मिटाऊपाशिवपद अविकारी हे अमि. ॥२॥ ॐ हीं की अभिवन्दनाय जिनेन्द्राय संसार साप विनाशकाय चन्दन मि.
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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