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________________ १८२ जैन पूजांजलि अंतर्मन निग्रथ नहीं तो फिर सच्चा निराध नहीं । बाहा क्रिया काडों से होता इस भव दुख का अंत नहीं ।।। जयमाला सर्व लोक जित सर्व दोषहर सदानद सागर सर्वेश । संभवनाथसुधी सवरमय स्वय बुद्ध सौभागी स्वेश ॥१॥ इक्ष्वाकुकुल भूषण स्वामी न्यायवान अति परम उदार । अश्व चिन्ह चरणों मे शोभित स्वों से आता शुगार ॥२॥ भव तन भोग भोगते स्वामी पूरी यौवन वय बीती । एक दिवस नभ मे देखी छाया बदली की छवि रीती ॥३॥ मेघ विनाश देखकर उरमे नश्वरता का भान हुआ । राज्य, पाट, पुर, वैभव त्यागा वन की ओर प्रयाणहुआ ॥४॥ एक सहस्त्र नृपो के सग मे तुमने जिन दीक्षाधारी ।। पच मुष्टि कच लोच किया प्रभु लिए महावत सुखकारी ।।५।। नृप सुरेन्द्र गृह किया पारणा पचाश्चर्य हुए तत्क्षण । मौन तपस्या वर्ष चतुर्दश मे जा पूर्ण हुई भगवन ।।६।। समवशरण मे द्वादश सभाभरी जग का कल्याण किया । सकल जगत ने देव आपका उपदेशामृत पान किया ।।७।। शक्ति रूप से सभी जीव है ज्ञान स्वभावी सिद्ध समान । व्यक्त रूप से जो हो जाता वही कहाता सिद्ध महान ८॥ जो निजात्म को ध्याता आया वह बन जाता है भगवान । जो विभाव मे रत रहता है वह दुखिया ससारी प्राण ॥९॥ पुण्य पाप दोनो विभाव हैं इनको जानो ज्ञाता बन । पुण्य पाप के खेल जगत में दखै केवल दष्टा बन IR०|| इनमे राग द्वेष मत करना समता भाव हृदय धरना । मोह ममत्व नाश कर प्राणी अघमिथ्यात्व तिमिर हरना ।।११॥ यह उपदेश हृदय मे धारूँ निज अनुभव महिमा आये । अनुभव की हरियाली सावन भादों सी उर में छाये ।।१२।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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