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________________ - श्री रानपर्व पूजन बेतन अपन संबोलो डर में पावन दीपावलिया ।। भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक नाशो कर्मालियाँ ।। किया गमन भाकाश मार्ग से सीध हस्तिनापुर आये । ऋद्धि विक्रिया बरा याचक, वामन रूप बना लाये १५॥ बलि से मांगी तीन पाँव भ, बलिराजा हसकर बोला । जितनी चाहों उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ॥१६॥ हसकर मुनि ने एक पाँव में हो सारी पृथ्वी नापी । पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी १७॥ ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा । क्षमा क्षमा कह कर बलिने, मुनिचरणों में मस्तकरक्खा ॥१८॥ शीतल ज्वाला हुई अग्नि की श्री मुनियों की रक्षा की । जय जयकार धर्म का गूजा, वात्सल्य की शिक्षा दी ॥१९॥ नवधा भक्ति पूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया । बलिआदिक का हुआ हृदयपरिवर्तन जय जयकार किया ॥२०॥ रक्षा सूत्र बांधकर तब जन जन ने मंगलाचार किये। साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये ।।२१।। समक्ति के वात्सल्य अग की महिमा प्रगटी इस जग मे । रक्षा बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्भ हुआ जग मे ॥२२॥ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था रक्षासूत्र बधा कर मे । वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर घर मे ॥२३।। प्रायश्चित ले विष्णुकुमार ने पुन व्रत ले तप ग्रहण किया । अष्ट कर्म बन्धन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया २४|| सब मुनियों ने भी अपने अपने परिणामों के अनुसार । स्वर्ग मोक्ष पद पाया जग मे हुई धर्म की जय जयकार ॥२५।। धर्म भावना रहे हृदय मे, पापों के प्रतिकूल चलें । रहे शुद्ध आचरण सदा ही धर्म मार्ग अनुकूल चलें ॥२६॥ आत्म ज्ञान रुचि जगे हृदय मे, निज परको मैं पहिचानें । समकित के आठों अगों की, पावन महिमा को जानें ॥२७॥
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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