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________________ १०९ श्री इन्द्रध्वज पूजन तुममें शुद्ध होना है तो फिर मात्र आत्मा को जानों । केवल ज्ञान परम निधि प्रगटित होगी यह निश्चयमान ।। मिथ्यात्वादिक पाप नष्ट कर सम्यकदर्शन को प्रगटाऊँ। सम्यकज्ञान चरित्र शक्ति से घाति अघाति कर्म विघटाऊँ ॥१८॥ ॐ हीं श्री वृषभदेवजिनेन्द्राय अनपदप्राप्तये पूर्णाम्य नि स्वाहा । भक्तामर स्तोत्र की महिमा अगम अपार । भाव भासना जो करे हो जाएँ भव पार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र ॐ ह्री श्री क्लौं अर्ह श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय नम श्री इन्द्रध्वज पूजन मध्य लोक मे चार शतक अट्ठावन जिन चैत्यालय है । तेरह द्वीपो मे अकृत्रिम पावन पूज्य जिनालय है ।। सर्व इन्द्र, इन्द्रध्वज पूजन करते बहु वैभव के साथ ।। हर मन्दिर पर ध्वजा चढाते झका त्रियोग पूर्वक माथ ।। में भी अष्ट द्रव्य ले स्वामी भक्ति सहित करता पूजन ।। निज भावो का ध्वजा चढाऊँ मिटे पच परावर्तन ।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौ अटठावन जिनालयस्थ शाश्वत् जिनबिम्ब समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट् । अवतिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अवमम् सनिहितो भव भव वषट् ।। रत्न जडित कचन झारी मे क्षीरोदधि का जल लाऊँ। जन्म मरण भव रोग नशाऊ निज स्वभाव मे रमजाऊँ ।। तेरह द्वीप चार सौ अट्ठावन जिन चैत्यालय बन्दै । इन्द्रध्वज पूजन करके प्रभु शुद्धातम को अभिनन्, ।।१।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौ अट्ठावन जिनालयस्य शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि स्वाहा । मलयागिरि का बावन चंदन रजत कटोरी मे लाऊँ। भव बाधा आताप नाश हित निज स्वभाव मे रमजाऊँ। तेरह ॥२॥ ॐ ही श्री मध्यलोक तेरह द्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बम्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि स्वाहा ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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