SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - - १०८ जैन पूजांजलि क्रिया शुद्ध स्वानुभव की हो तो प्रगटित होता सिद्ध स्वरुप । दया दान पूजादि भाव की क्रिया मात्र 'ससार स्वरुप ।। मै भी प्रभु की महिमा गाकर भावपुष्प करता हूँ अर्पण । बैलोक्येश्वर महादेव जिन आदिदेव को सविनय वन्दन ॥५॥ नाभिराय मरुदेवी के सुत आदिनाथ तीर्थकर नामी । आज आपकी शरण प्राप्त कर अति हर्षित हूँ अन्तर्यामी ॥६॥ मैने कष्ट अनतानन्त उठाये हैं अनादि से स्वामी । आत्मज्ञान बिन भटक रहा हूँ चारो गति मे त्रिभुवननामी ७ नर सुर नारक पशुपर्यायो मे प्रभु मैने अति दुख पाये । जड पुद्गल तन अपना माना निजचैतन्य गीत ना गाये ।।८॥ कभी नर्क मे कभी स्वर्ग मे कभी निगोद आदि मे भटका । सुखाभास की आकाक्षा ले चार कषायो मे ही अटका ॥९॥ एक बार भी कभीभूलकर निजस्वरुप का किया न दर्शन । द्रव्यलिग भी धारा मैने किन्तु न भाया आत्म चितवन ॥१०॥ आज सुअवसर मिला भाग्य से भक्तामर का पाठ सुनलिया । शब्दअर्थ भावो को जाना निज चैतन्य स्वरुप गुन लिया ॥११।। अब मुझको विश्वास हो गया भव का अन्त निकटआया है ।। भक्तामर का भाव ह्रदय मे मेरे नाथ उमड आया है ॥१२॥ भेद ज्ञान की निधि पाा स्वपर भेद विज्ञान करूँगा । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा अष्टकर्म अवसान करुंगा ॥१३॥ इस पूजन का सम्यकफल प्रभु मुझको आप प्रदान करो अब । केवलज्ञान सूर्य की पावन किरणो का प्रभु दान करो अब ॥१४।। क्रोधमान माया लोभादिक सर्व कषाय विनष्ट करूँ मै । वीतराग निज पद प्रगटाऊ भव बन्धन के कष्ट हरूँ मै ॥१५॥ स्वर्गादिक की नही कामना भौतिक सुख से नही प्रयोजन । एक मात्र ज्ञायकस्वभाव निजका ही आश्रयलू हे भगवान ॥१६॥ विषय भोग की अभिलाषाएँ पलक मारते चूर करूँ मैं । शाश्वत निज अखड पद पाऊ पर भावों को दर करूँ मैं ।७।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy