SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पूजाँजलि जब तक मिथ्यात्व हदय में है ससार न पल भर कम होगा । जब तक पर द्रव्यों से प्रतीति भव भार न तिल भर कम होगा । । आज आपका दर्शन करने चरणो मे आया हूँ। शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको यही भाव भर लाया हूँ ॥२०॥ भाव शुभाशुभ भव निर्माता शुद्ध भाव का दो प्रभु दान । निज परणति मे रमणकरूँ प्रभु हो जाऊँ मै आप समान ॥२१॥ समक्ति दीप जले अन्तर मे तो अनादि मिथ्यात्व गले । रागद्वष परणति हट जाये पुण्य पाप सन्ताप टले ॥२२।। कालिक ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर बढ जाऊँ। शुद्धात्मानुभूति के द्वारा मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥२३।। मोक्ष लक्ष्मी को पाकर भी निजानन्द रसलीन रहूँ। सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ॥२४।। आज आपका रूप निरखकर निज स्वरुप का भान हुआ । तुम सम बने भविष्यत् मेरा यह दृढ निश्चय ज्ञान हुआ॥२५।। हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित होकर की है यह पूजन । प्रभु पूजन का सम्यक फल हो कटे हमारे भव बन्धन ।।२६।। चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नही कामना है स्वामी । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पाये हे अन्तरयामी ।।२७।। ॐ ही जिनबाहुबलीस्वामिने अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि । घर घर मगल छाये जग मे वस्तु स्वभाव धर्म जाने । वीतराग विज्ञान ज्ञान से शुद्धातम को पहिचाने । । ___ इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री बाहुवली जिनाय नप । श्री गौतमस्वामी पूजन जय जय इन्द्रभूमि गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय । तीर्थकर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ।। द्वादशाग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतमस्वामी जय जय । वीरप्रभु को दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए अभय ।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy