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________________ १६० (२५) ( दोहरा) हे प्रभु, हे प्रभु, सु कहुं, दीनानाथ दयाळ, हुं तो दोष अनंतनु, भाजन छु करुणाळ. १ शुद्ध भाव मुजमा नथी, नथी सर्व तुज रूप; नथी लघुता के दीनता, शु क्हुँ परमस्वरूप ? २ नथी आज्ञा गुरुदेवनी, अचळ करी उरमाही, आप तणो विश्वास दृढ, ने परमादर नाही. ३ जोग नथी सत्संगनो, नथी मत्सेवा जोग; । केवळ अर्पणता नथी, नथी आश्रय अनुयोग. ४ 'हुँ पामर शु करी शकुं ?' एवो नथी विवेक; चरण शरण धीरज नथी, मरण सुधीनी छेक. ५ अचिंत्य तुज माहात्म्यनो, नयी प्रफुल्लित भाव; अंश न एके स्नेहनो, न मळे परम प्रभाव ६ अचळरूप आसक्ति नहि, नहीं विरहनो ताप; कथा अलभ तुज प्रेमनी, नहि तेनो परिताप. ७ भक्तिमार्ग प्रवेश नहि, नही भजन दृढ भान; समज नही निजधर्मनी, नहि शुभ देशे स्थान. ८
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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