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________________ (८०) पुरुप इन यीस पदाथाके बादमें जाकर आकाश पैदा होता है। बतलाइये, विना आकाशके ये वीस पदार्थ कहां ठहरेथे ? कयोंकि आकाश नामही अवकाश देने वालेका है। अब सोचना चाहियेकि जब अवकाश (पोलाद) देनेवालीही कोई चीज नहीं थी तो फिर प्रथमकी प्रकृति आदि वीस चीजें किस्में र. हीथी ? बस, इससे सिद्ध हुआकि आस्मानकी पैदायश माननेवाले सांख्य मतसें पोला पोल है। बाद रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इनसे अग्नि आदि चार तत्वोंकी पैदायश मानते हैं, यहभी वात ठीक नहीं है। क्योंकि रूपादिक गुण हैं वह गुणीको कभी नहीं पैदा कर सक्ते हैं ! क्या ? ऐसाभी हो सक्ता है कि पुत्र पिताको पैदा कर सके । हरगिज नहीं । याद रहे गुणीमें गुणोंकी परावृत्ति तो वेशक हो सकेगी मगर आधेय गुण अपने आधार गुणीको कभी नहीं पैदा कर सक्ता । प्रिय सांख्यो ! देखिये, आपके माने हुए चोईस पदाथीका तो खंडन कर दिया गया । अबरहा आत्मा सो इस्की व्यवस्थाभी ठीक नहीं है । क्योंकि आप आत्माको पूर्व-अवस्थामें निर्मल मानते हैं और वादमें उस्के साथ प्रकृतिका संयोग मानते हो; और जव आत्मामें विवेक पैदा होता है तो उस्का मोक्ष मानते हो मगर देखिये, यह बात ठीक नहीं है। यतः बतलाइये, जिस निर्मल आत्माके साथ प्रकृतिका लगना मानते हो वो आत्मा खुद प्रकृतिको चाहता है ? या प्रकृति
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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