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________________ (७९) से यह कह रही है कि अफसोस है सामीजीकी ल्याकतपर कि निस्ने परम पवित्र वीतराग देवके कयन किये हुए मार्गको तो दुए कर्म सागरमें डुबोने वाला लिखा है। मगर न मालूम ऐसी ऐसी वाद्यात वातोंके पाते हुए उस्की अकल कहाँ फिरने गइथी ? शायद नियोगमें नियोजित हुइ होगी जो इन बातोंकी तरफ बिलकुल लक्ष नहीं दिया है। ___ प्यारों ! इसपातके करनेसे में प्रकरण यहार होगया हू ऐसाभी आप न समझें । किन्तु आपको यह समझा रहा है कि दयानदीय लोगभी इन बातोंको मानते है । वाद पाच कर्मेंद्रिय माननेकीभी कोई जरूरत नहीं है । क्योंकि इन पांचोंके सिवाय याकीके अगोंमें यदि क्रिया नहोती तो ऐसेभी मान लेते मगर वाकीके अगभी क्रिया करते है । जैसे विग्रही महिप (भैसा) किसी पुरुष व अपनी जातीके साथ लडनेका काम लेता है तो शूग शिरसेही लेता है । इसलिये कमंद्रियवाली कल्पनाभी वृया है। बाद शन्दसे आकाशकी उत्पत्ति मानते है यहभी सिद्ध नहीं होसत्ता । यत प्रथम तो प्राय हरएक मतका आकाशको नित्य मानते हैं । जव पैदायश मानी जायगी तो तमामका निस्याका सिद्धान्त उड जायगा, और यक्तिभी इसवातको सिद्ध नहीं होने देती। क्योंकि इनके मम सबसे पेश्तर प्रकृति होती है, उससे पुद्धि होती है, बुद्धिसे और नहफारसे सोलह चीजें पैदा होती है, ये सब मिलकर उन्नीस पदार्थ होते हैं, और वीसमा
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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