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________________ (७६) जाननेवाली मानते हैं इसलिये इस्में कोई दूपण नहीं है। । जैन-चित्के सानिध्यसेभी जड बुद्धि पदार्थ ज्ञानको नहीं करसक्ती। यतः अगर हम घडेको हाथमे लेलेवे तो क्या वो घट चैतन्य हो जायगा ? हरगिज नहीं ! हरगिज नहीं ! ! ऐसा कभी नहीं होसकता है कि चैतन्यके योगसे अचैतन्य चैतन्य हो जावे । क्योंकि इन दोनोंके परस्पर अपरावृत्ति स्वभावको ब्रह्माभी अन्यथा नहीं करसकता, इसलिये आत्मिक धर्म बुद्धि को जड मानना यह आपकी कल्पना बिलकुल थाहै । वाद अइंकारको बुद्धिसे पैदा हुआ माननामी ठीक नहीं है। क्योंकि मैं सुभग हूं अथवा मैं दर्शनीक हूं इस किस्मके अभीमानको आपकी नडबुद्धि पैदा नहीं करसकती है। यतः ऐसा विचारभी कर्माहत चैतन्यसेही होसकता है नकि जडसे । अगर जडसे हो वा तो घटादिक जड पदार्थोमेंभी यह इरादा पाया जाता; इस से सिद्ध हुआकि यहभी विचार चैतन्यसेही होता है। वाद अइंकारसे सोलह चीजोंकी उत्पत्ति मानतेहो सोभी अनुचित वात है । क्योंकि अगर अहंकार ( अभिमान ) से पूर्वोक्त पांच बुद्धेन्द्रिय आदि षोडश करण पैदा होता हैं, तो फिर लूले__ अंधे-बहिर (बहेरा) कुणि (टुंटे ) आदि रोगियोंको रोना किस लिये चाहिये ? फौरन अपने मनमें अभिमान ले आना __ चाहिये कि हम ऐसे जबरदस्त है, हम ऐसे सौभाग्यवान् हैं, हम ऐसे रुपवान् हैं। बस, उस अभिमान द्वारा झट उनको ज्ञानेंद्रियें
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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