SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१) पवाकि आपनेभी " अह मुख मनुभवामि " में सुखरा अनुकर रहाह, इस पातका प्रमाण देकर आत्माकी प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्धि कीथी । हमभी इसी तरहसे कह सकते है । यतलाइये । नया हर्ज हे? आम्तिर--हमारी तरह आप " नानामह कार्य" भूतोका में कार्य ह, ऐसा नहीं कह सकते है । क्योकि कार्य कारण भाव अन्य व्यतिरेकसे जाना जाता है। सो आपके मतम भूत और उम्के कार्य चैतन्यसे अतिरिक्त (अलाहिदा) कोइ नाता (जाननेवाला) पदार्थ नहीं है। जिससे जाना जाने कि ठीक चैतन्य भृताका कार्यहै। अगर इन दोनोसे तीसरा अलाहिदा कोइ ज्ञाता मानलिया जाये तो पो जात्माही सिद्ध हो गया! फिर मगन सोग मिस पातकी करते हो" इसलिये आपके मतम कार्य कारणको पहिचान करने वाले तीसरे पदार्थक न होने की वनहमे प्रत्यक्ष प्रमाणसे भतोंका कार्य चैतन्य कभी सिद्ध नहीं होसक्ता । ननुमानसेभी नेतन्य भृत्तांका कार्य सिद्ध नही होसक्ता । यत आप अनुमानका स्वीकारही नहीं कर सकते है "प्रत्यक्षमेवेक ममाण नान्यदिति वचनात् " यानि प्रत्यक्षही एक प्रमाण है जन्य नही ऐसा स्थन करनेसे अगर फर्जी तोरपर आप अ नुमानको मानभी लेब तोभी आपका मनोरय सिद्ध नहा हो सक्ता । देखिये। नापका कहना है कि " ननुकायाकार परिणनेभ्यो भूतेभ्यश्चत य समुत्पयते तदारएव चेतय भा
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy