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________________ ( ३२५ ) यायी मेवनी ऋपिने भो आपका शिष्यत्व स्वीकार किया. प्रशस्तिकारने लिखा है कि," लुम्पाकाधिपमेवनीमापिमुखाहित्वा कुमत्यापहम्, " भेजुर्यचरणयीपनुदिन भृगा इवाभोजिनीम् " उल्लास नमिता यदीयवचनैर्वैराग्यरगोन्मुखै" जर्जाता स्वस्वमत विहाय बहवो लोकास्तपासज्ञकाः॥२३॥" और आपके उपदेशसे कई जिन सिम्म प्रतिष्ठाऐं तया सप्तक्षेनमें बनका व्यय और सघ सहित शनुनय प्रभृति कई तीर्थीको यात्राएं कराई । लिखाहै. आसीचैत्यविधानादिमुनक्षेत्र वितव्ययो । भूयान्यद्वचनेन गर्जरपरामुख्येषु देशेवऽलम् । यात्रा गुर्जर मालबादिकमहादेशोभरै रिभिः ।। सधै सार्धमृषीश्वरा विदधिरे, शत्रुजये ये गिरौ ॥२४॥ आपकी तारिफ अकारशाहके गौश मुगारकपर पहुंची और शाहने अपने दो दरसारियोंको वजायमौदी और काबलको फरमान देकर अहमदाबाद भेजा के साहिरखान हाकिम फोरन सूरिजीको दरवारमें भेजें। काव्यकार लिखते है कि,
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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