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________________ (३११) मगर वे नित्यानित्यत्व जो है सो असत्य नही है. इति. क्यों भाई ! समझे न ___ यज्ञ-हे कृपानिधे । खूब समझ गया, अव कृपाकर आगे फरगावे मूरि-हे श्रोतागणों । स्याद्वाद्के मानने वाले शुद्ध तत्वज्ञ पुस्प रित्यानित्य सामान्य विशेष अस्तिनास्ति आदि सर्पको मान्य करते हैं एका त मिथ्यात्वता न कर नहीं बैठ रहते इस प्रकार क्थन जहा हो उसे स्यावाद कहते है शिवर्ग-हे गुस्वयं । अब इसी प्रकार कथचित नयाँका रणन फरमा मूर-हे महानुभावों श्री हन्त रथित धर्ममे रोगप, सगड, व्याहार, अनुसूत्र, गब्द, समभिरूढ और एभूत ऐसे सान नरमाने हैं नगमाय एक वेश ग्राहो होता है और उसक, मृत, भविष्य, और वर्तमान करके तीन भेद हाने हे - भूतने म अतीते वर्नमाना रोपणा यत्र सभूतनैगम अर्थ-भूतकासी पात वर्तमानम वापर कहना गे मन नैगम है या-मादीपगालिया अमावस्याया महारोगे महंगत आग दीवालीके अमावस्याको महावीर स्वामी मोक्ष गये.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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