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________________ ( ३१०) सापेक्ष तया वदनं स्याद्वादः " अर्थ. सर्व दर्शन मान्य ऐसे जो वस्तुओंके सुप्टु अंश उनको परस्परमै अपेक्षा सहित कहना सो स्याद्वाद है. अपरच “ सदसन्नित्यानिन्य सामान्य विशेपाभिलाप्या नमिलाप्यों भवात्मानेकान्त इत्यर्थः अर्थ-सत् असत् नित्य, अनित्य, सामान्य, विशेष, अभिलाप्य, अनभिलाप्य, तथा हर दोनोंका जो वताना सो स्याद्वाद वा अनेकामवाद है. __ यज्ञ-हे मूरिवर्य ! ईस शंकाशीलदासको एक शंका पैदा हुई है वह यह है कि, आपने पहिले सर्व दर्शनोके मान्य • सद्भुत वस्त्वंश बताये तो ये कैसे संभव हो सकता है सब कि सर्व दर्शनीय आपसमें विरद्ध भाषि हैं और जो ऐसा ही होता तो हम आपके मतको स्याहार नहीं कह सकंग. सूति-हे भा! यानि सर्व दर्शन वाले अपने २ मा भेद करके आरममें विरोधी हैं, लेकिन जो उनके कान किये हुवे हैं सोभी अवश्य वस्त्वंश हैं. और इसीले आपसमें जब उनका मुकाबला करते हे तो सप्टु हो कहे जासकते हैं. जैसे वौद्धने अनित्यत्वको और सांख्यने नित्यत्वको माना है और हकीगतमे देखा जाये तो नित्यानित्य दोनो ही मानना ठीक है सवव नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों अलग २ मानने वाले अलग २ मत वाले तथा एक दूसरे के विरुद्ध भापि है
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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