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________________ ( २८० ) जानना चाहिये कि कभी सूर्यके पुर्दमें उदय होनेकी अपेक्षा पश्चिममें उदय होनेकी वात भलेही संभव होजाय, पानीके नीचे जमीनपर वहनेकी अपेक्षा कदाचित् कभी ऊंची जगहोंमें बहना संभव हो जाय, परन्तु भक्ति करनेवाले मनुष्य स्वतंत्र सुखी सर्वज्ञ और निर्दोष हो सके, यह बात किसी काल भी संभव नहीं हो सकती है । जिस प्रकार काई अग्निको अपनी अंगुलीसे स्पर्श करके दाजे विना नहीं रहता है, जिस प्रकार कोई पानीमें डुबकी मारकर भीगे बिना नहीं रहता है, उसी भकार इश्वरकी भक्ति करने वालाभी सुखरूप हुए विना नहीं रह सकता है, क्योंकि जो वस्तु जिसके साथ यथार्थ और निरन्तर सम्बन्ध रखती है वह उसके गुण ग्रहण किये बिना नही रहती है । अग्निके सन्निकट आया हुआ लोहा अग्निसा लाल सुर्ख होजाता है। लोहचुंबकसे लगे रहनेवालेके साधारण टुकड़े टुकड़े भी कई दिनोंतक दूसरे लोहके छोटेसे टुकड़ेको आकर्पण करनेकी शक्ति आजाती है । विद्वानोका संग प्रीतिसे सेवन करनेवाले विद्वान् ओर मुल्के सहवाससे कई मूर्ख बन जाते हैं. सब जगह संगहीका महात्म्य दृष्टि आता है, तो ईश्वरके संग प्रीति पुर्वक रहने वालेमेंभी ईश्वरके गुण आ जाना स्वाभाविकही है। साधारण रूपसे जो देखाजाय तो मालूम होता है कि भक्ति तीन प्रकारकी है-नामकी भक्ति, कच्ची भक्ति और सच्ची
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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