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________________ ( २३७ ) करण सत्तरीके ७० भेद ये एकसौ चालिस प्रकारके मूल गुण और उत्तर गुणको अगिकार करें उसको सर्वविरति चारीन हैं उस चारित्रका सार निर्वाण है अर्थात् सर्व कर्म जन्य उपाधिसे रहित होना उसको निर्वाण कहते है, उस निर्माणका अव्यागाध अर्थात् शारीरिक और मानसिक पीडासे रहित सा परमानन्द सरूपमे मग्न रहना यह क्ति जिन पासनका सार है. "जैनशास्त्र " यो तो जैन सिद्धान्नके अनेक ग्रंथ है, परन्तु मुरय ४५ आगमोंमे ११ अग, १० उपाग, १० प्रकीर्णक (पयन्ना) ६ छेद ८ मूलमूत्र और २ अन्नरगुन है (माचीन ग्रयोंके नाममी पारर अग चौदह पुर्व हैं परन्तु वे इतने बढेथे कि उनका ताइपर एवम् पागनोंपर लिखाजाना कठिनथा और वे अतफेवती मुनियों केही कठान रहते ) ये वर्तमानमेभी पूर्वका में अनेक अघमियों के आक्रमणसें पचार स्थित है। मिय पाठक गण! यहा केवल जैन दर्शनरा सार मात्र आपको भेट पिया जाता है इससे आता है कि आपकी रुचि जैन गानोंके
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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