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________________ (२१४ ) में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरढने ठेले ॥ वीजी वाते समरथ छे नर, एह ने कोइ न झेले. हो । कुंथु जिन ॥ ७ ॥ मन साध्युं तेणे सघलुं साव्यु, एह बात नही खोटी ॥ अमके साध्युं ते नवि मार्नु, एह वात छे मोटी हो ॥ कुंथु जिन ॥ ८॥ मनहुँ दुराराध्य तें वश आण्यु, ते आगम मत आएं॥ आनंदघन प्रभु माहरूं आणो, तो साचुं करी जाणुं हो ॥ कुंथु जिन ॥ इति ॥ प्रिय पाठक ? योगीराजका मन वश न हुवा हो ऐसी हालतमें आनंदघनजी महाराज श्री कुंथुनाथ स्वामी ( श्री सत्तरमें तीर्थकर ) से वीनती करते हैं कि हे विभो ? में अनेक ध्यान मौनादि कष्ट क्रिया करके मनको आपके चरणमें लगाना चाहता हुँः परंतु पापी मन अन्य स्थलमे लग कर आपके चरनमे नहीं लगता और ज्यों ज्यों मै इस मनको कब्जे करता हूं त्यौं त्यौं यह दूर भगता जाता है, हे नाथ ? रात्री दिवस (दिन ) उजाडमें वस्तीम, पातालमें और आकाशादि स्थलम मन चक्कर खाता फिरता है। मगर किसी स्थल पर इसकी गति
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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