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________________ ॥ ( २०८ ) वाको मन न ढ़के काहुं ठोर ॥ मना ऐसे ॥३॥ जुआरी मन जुआ वसेरे। कामीके मनकाम (मेरे मना कामीके मन काम)॥ आनंदघन प्रमु यु कहरे, (आनंदघन मना यु कहेरे) नित्य सेवो भगवान, मना ऐसे जिनचरना चित्तल्यारे॥५॥ चाचकटंद ? अनुभव विद्धन महात्मा योगीराज स्वात्मा को सदुपदेश देते हुवे फरमाते है कि हे मन ? ज्यों ज्यों दिन निकलते जाते हैं त्यों त्यों उमर कम हो रही है, जो क्षण गया वह पुनः आने का नही वास्ते अरिहंत प्रभुका स्मरणकरनेमें तत्पर हो. जैसे गाय उदरपोषण अर्थात् पेट भरनेके लिये बनखंडमें जाकर घास और पानीसे विवाह करती है मगर जो उसकी संतान (बछडा) साथ न होगा तो उसका मन छोटे बच्चेपर बना रहता है, इसी तरह हे मनवा ? तुंभी व्यवहारिक धार्मिक कार्य करते वख्त तरण तारण भव भयनिवारण परमात्माके चरनकमलमें ध्यान रखनेको प्रवृत्त हो. हे सुज्ञो ? जैसे पांच पांच सात सात स्त्रीयों-झुंडके झुंड पानी भरनेको दापिकाकी तरफ जाती हैं और मटका शिर पर लेकर सखी सहेलियोंके साथ हंसती हुइ स्मित वदनसे मशकरीमें व्याप्त होकर वसुंधरा पर चलती है। मगर उनका ध्यान पानीके मटकेसे अलग नहीं होता, इसी तरह हे मनवा ? तुंभी सुमति रूपी रंभापरी होकर शियल ? समता ?
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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