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________________ (२०५) ले फुकरणी फुकण लागु, पाणी ज्यु पिघलाऊ॥ मना तोहे फिस विध समझाऊ ॥३ ॥ रोहा होय तो एरण मगाउ, दोइ क्यण धमाऊ । मार चणाका घम घोर लगाउ, जनी तार कटाऊ। यना तोहे किस विध समझाऊ । ॥४॥ ज्ञानी होय तो ज्ञान सीखाउ, अतर बीन बजाऊ। 'आनदयन' कहे गुणभाई मनवा, ज्योतिसें ज्योत मिलाऊ। मना तोरे किस विध समझाऊ ॥५॥॥ श्रीमन् महात्मा आनदघनजी महाराज सारमाको मार्थनाके तुल्य यहते है कि हे मनवा (मन) ? जो तु हाथी होता तो में पकड कर तेरे पांवमें जजीर डालकर सारी करता और अश देकर तुने अच्छी तरह समझाता, मगर क्या किया जाय तु हाथीभी नही. हे मन । जो तु घोडा होता तो में पड कर काटेदार साम रगाके उपर बैठकर शहरमें फिराता और चाबुक दे पर समझाता, मगर तु घोराभी नहीं है. हे मन तु धातुओंमें सर्वोत्तम शिरोमणी मुवर्ण अर्थात् सोना होना तो में तेरे लिये सोहगी मगपाता और यूर करडा तार दिलाफर राण तापसे पानी जैसा पिरला कर समझाता मगर नु सोनाभी नहीं है.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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