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________________ (१३३ ) होगयेथे तोभी शिष्य समदायको यही उपदेश करते रहतेये फि,-मुझ गौचरीकाही अन्न ला दो। सरत १९३६ में आपके वृहतशिष्यकी माताने अपना वालक आपके समर्पण कर दिया और ४ वर्ष तक लालन पालन करके विक्रम सवत १९४० आपके सुपुर्द कर दिया इन अठराह वर्पोम गच्छकी ऐसी हानि हुई, ऐसा ग्रिह और लेग हुआ कि लिखते हमारी लेसिनी काप उठती हे और वह उक्त घटना अमासगीक होनेसे एव सार रहित होनेसे हम यहापर लिखना युक्तही नही समझाते __ पाचोराके निकट एक बनोटी नामक एक छोटा खेडा है उसमें जैन श्रारक धूलचद्र वगारीया रहताया उसके क्षयका रोगया और घरमें पिशाच वाधापी, वह कई यत्न करनेपरभी रोग शात नहींहुए दैवयोगसे ब्रह्मचारी श्रीयुत रविदत्तजी वहापर चलेगये उनसे धृलचद्रजीने विनती की कि, महाराज ? यह मेरा रोग कैसे जाय? तर ब्रह्मचारोनीने उत्तरदिया कि जिनआचार्यका मे शिष्यहु उन्ही आचार्य महाराजफे मुख्य शिप फेवलचद्रजी गणि बीकानेरमें विराजमान हैं यदि वे तेरे भाग्यसे यहाँपर आजाय तो तेरे यह दु ख दूरहोना कोइ फठीन बात नही. यहनात सुनकर बनोटीसे धूलचद्रजी वगारीयाने कई पत्र लिखे और अन्नमें एकसो १०० रूपयोंका मीओर्डर
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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