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________________ ( १२४) समझतेथे. शहर वीकानेरमें कइ प्रवल पहलवानोंका मानमर्दन आपनें कर दियाथा. आपके देहान्तके थोडे दिन प्रथम एक शत्रु युवकसे वल संबंधी वार्तालाप करते उसका हाथ पकड लियाथा तो वह उसे छुटवाना मुश्किल होपडा ! वृद्ध वयमें भी आपमें ऐसी शारीरीक शक्ति विद्यमानथी. ताराचंद्रसूरिजी महाराजके देहोत्सर्गके वाद-गच्छकी वडीही शौचनीय दशा होगई-कइ विघ्नसंतोपी यतियोंने वीकानेरमें मपंच जाल वीजाकर सरिजीके शिप्योंमें मतस्य उत्पन्न करदिया. सुरुतानचंद्रजी तो अपनी ढाइपा अलगही पकाने लगे. अने आचार्य होजानेकी कोशीश करने लगे. कपूरचंद्रजी दोचार यतियोंकी सम्मति सूरि बनकर ठगये आपने सभीको बहुत समाझाए परंतु जब यह स्पष्ट विदित होगया कि यह लोक दुराग्रह नहीं छोड़ते है तब मध्यस्थ वृत्तिको त्याग तटस्थ वृत्ति स्वीकार करली. और-स्वर्गवासी गुरु आचार्य महाराजका आराधन करनेका पीछे पोहोकरन लौट कर चले आये. आपकी गुरुभक्ति सराहनीयकी क्यानहो ? कहा: " गुरुके प्रसाद सब विद्याको बोध होत, गुरुके प्रसाद तें प्रकाश उरछायोंहै । गुरुके प्रसाद शुद्ध आनंदरूप होत. गुरूके प्रसाद शिव कालकूट खायोहै । गुरुके प्रसाद वाल्मीकी व्यास कविभये, गुरुके प्रसादही ते रामगुण गायोहै । गुरुहीके कृपासें आनंद होत सालिग्राम-गुरुपदकी कृपासे पूर्णपद
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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