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________________ ( १२२ ) महात्माओंकी सेवा और सत्संगत बनी रहेतो अच्छा । उक्त गुणों के कारणसे आचार्यजी महाराजका सभी शिप्यासे अधिक प्रेम आपके उपरथा. विक्रम संवत् १९०३ में आचार्य जी माहाराजने अपने हायसे आपको दीक्षा दी, दीक्षाका नाम " केवलचंद्र " मुनि रक्खा । दीक्षाके समय आएकी कोइ अठराह वर्षकी वयथी. व्याकरण, काव्य, कोश, न्याय, अलंङ्कारादि शास्त्रोंका अध्ययन आप भलीभांनी करसकेथे. ज्योतीच, वैद्यक, उन्द, प्रभृति शास्त्रोंका अवलोकन आपका भलीभां ती होगयाधा. जैनदर्शनके मुख्य सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन आप आचार्यजी महाराजके समीप करतेये, आचार्यश्रीके साथ ग्रामामुग्राम विचरनेसे यद्यपि शास्त्राध्ययनमें क्षति पहुचतीथी, तथापि सूरिजीस्वतः विद्वान् और पठन करवाते रहनेसे विशेष हानी पहुचनेका संभव नहींथा. जैनदर्शनके सिद्धान्तोका सुबोध होनेपर पट्दर्शनके मुख्य ग्रंथोंका अवलोकन सूरीनीने करवा दिया. विद्यामें आपकी प्रशंसनीय प्रगति और सद्गुणोंद्वारा प्रसन्न होकर-सरिजीनें आपको युवराजपद ( प्रधानपद) पर निमतकर दिये. आचार्यजी महाराजके शिष्य सम्प्रदायमें-सूर्यमलजी, मुलतानचंद्रजी, कपूरचंद्रजी ओर ब्रह्मचारी 'रविदत्तजी १ नोट-आपने आचार्यजीसे मंत्रोपदेश लेकर केवल ब्रह्मचर्य व्रतही ग्रहण कियाथा और यह प्रतिज्ञाकी भीथी, आपका शिष्यका स्वीकारकर इसी अवस्थामें आत्मसाधन करूंगा.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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