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________________ ( १२० ) करतेथें, और मानसीक इच्छा उनकी यही रहा करतीथीकी कीसीभी रीत्या जैन धर्म उन्नत दशाम पहुचे ! आचार्याका क्या कर्त्तव्य हैं यह वे पूरी तौरसे जानतेथे, इतनाही नही बरन् वे. कर्त्तव्यका यथोउचित पालन भी करनथे । आचार्यजीके गुणोका उल्लेख करनेका यह समय नहीं हैं इस लिये अधिक लिखना अयुक्त समझता हूं। एकदिन मेघराजजी सुराणन आचार्यजीसें यह विनतीकी, मेरे घरको पधारकर पावन करनेकी कृपा फरमा । श्रीजी महाराजनें मुराणनीकी भक्तिवश यह कहना स्वीकार करलिया और दूसरही दिन सुराणेजीके घरको आचार्यनी महाराज पधारे, पथरामणीका जलसा सुराणीजीने बहुतही प्रगंसनीय किया सुराणेजीने आचार्य महाराजकी केसरचंदन और सुवर्ण मुद्राआसे नवअङ्गि पुजन कर अपना आनन्द सभासमक्ष व्यक्त किया. उस समय हमारे चारित्र नायक आचार्य महाराजके चरण कमलोंमें आकर लैटगये माता व पिता प्रभ्रतिने नोट १ कई लोगोंके मन में यह वहेम भरा है कि-विरक्त आचार्य-मुनि प्रभ्रतिने-सुवर्णमुद्रा ( मोहोरो) आसे पुजन नहीं करना चाहिये परंतु यह उनकी भूल है । अकबर वादशाहको प्रतिबोध देनेवाले-जैनाचार्य हिराविजयमूरि महाराज सरीखे महात्माओंनेभी मुवर्णमुद्राओंसे पूजन करवाई है । यह उनके जीवन चरित्रसे विदित होता है.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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