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________________ (११३ ) लेखस-पाठकवर्ग ! आपका कथन असत्यहै, चुके प्रवाह स्पसे रागद्वेप ठीक अनादिह मगर आजागी तर अनादि नहीं है क्योकि हमेशा के लिये आश एपही रहेगा लेकिन रागद्वेप हमेशहके लिये एक किस्मना नहीं रहताहै, कमी किसी चीजपर राग होताहै और कभी किसी चीजपर इस कदर तगदियर तपद्दल (परिवर्तन ) होती रहतीहै इसी तरह द्वेपको भी आप समझ सक्तेहैं । इस लिये आकाशकी मिसाल ठीक नहीं है, मगर फिरभी फर्जी तौरपर आपकी मिसालको मानकर जवाब दिया जाताहै वों ? पढे । और फायदा हाँसिल कर जैसे किसी पुरुपको स्त्रीने शरीरादि वस्तुका यथार्थ तत्त्वज्ञान होनेसे या उस्की विरप चेटासे भर्तहरिजीकी तरह उससे एस्तम निस्पृहता पैदा होजाती है तो उस पुरुपमें प्रतिक्षण रागनी अती अती व हानि देखी जाती है हत्ताने सहा तानि निस्के सिवाय एक सण गुजारना मुश्कील होता था उस्को क्षण मात्र त्याग कर विरक्त बन जाते हैं, यहापर साफ तोरपर रागका अपचय (थोडे क्षयका नाम अपचय है) देखा जाता है इससे हम कह सक्ते है कि किसी दिन सपर्ण सामग्रीके मिल जानेपर निर्मूल नाम भी होजायगा । अगर निर्मूल नाश आपको समत् नहीं है तो अपचर भी सिद्ध नहीं होसकेगा । देखिये किसी पुरुषको इतनी शरदी लगी कि उस्के तमाम अग कॉप रहे है उस पुरुपको अगर थोडी
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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